बाबा की दिव्‍य शक्ति और शिर्डी


शिरडी के साई बाबा आज असंख्य लोगों के आराध्य देव बन चुके हैं. उनकी कीर्ति दिन दोगुनी-रात चौगुनी बढ़ती जा रही है. यद्यपि बाबा के द्वारा नश्वर शरीर को त्यागे हुए अनेक वर्ष बीत चुके हैं, परंतु वह अपने भक्तों का मार्गदर्शन करने के लिए आज भी सूक्ष्म रूप में विद्यमान हैं. शिरडी में बाबा की समाधि से भक्तों को अपनी शंका और समस्या का समाधान मिलता है. बाबा की दिव्य शक्ति के प्रताप से शिरडी अब महातीर्थ बन गया है. कहा जाता है कि 1854 में पहली बार बाबा जब शिरडी में देखे गए, तब वह लगभग सोलह वर्ष के थे. शिरडी के नाना चोपदार की वृद्ध माता ने उनका वर्णन इस प्रकार किया है- एक तरुण, स्वस्थ, फुर्तीला तथा अति सुंदर बालक सर्वप्रथम नीम के वृक्ष के नीचे समाधि में लीन दिखाई पड़ा. उसे सर्दी-गर्मी की ज़रा भी चिंता नहीं थी. इतनी कम उम्र में उस बालयोगी को अति कठिन तपस्या करते देखकर लोगों को बड़ा आश्चर्य हुआ. दिन में वह साधक किसी से भेंट नहीं करता था और रात में निर्भय होकर एकांत में घूमता था. गांव के लोग जिज्ञासावश उससे पूछते थे कि वह कौन है और उसका कहां से आगमन हुआ है? उस नवयुवक के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर लोग उसकी तऱफ सहज ही आकर्षित हो जाते थे. वह सदा नीम के पेड़ के नीचे बैठा रहता था और किसी के भी घर नहीं जाता था. यद्यपि वह देखने में नवयुवक लगता था, तथापि उसका आचरण महात्माओं के सदृश था. वह त्याग और वैराग्य का साक्षात मूर्तिमान स्वरूप था. कुछ समय शिरडी में रहकर वह तरुण योगी किसी से कुछ कहे बिना वहां से चला गया. कई वर्ष बाद चांद पाटिल की बारात के साथ वह योगी पुन: शिरडी पहुंचा. खंडोबा के मंदिर के पुजारी म्हालसापति ने उस फकीर का जब आओ साई कहकर स्वागत किया, तबसे उनका नाम साई पड़ गया. शादी हो जाने के बाद वह चांद पाटिल की बारात के साथ वापस नहीं लौटे और सदा-सदा के लिए शिरडी में बस गए. वह कौन थे? उनका जन्म कहां हुआ था? उनके माता-पिता का नाम क्या था? ये सब प्रश्न अनुत्तरित हैं. बाबा ने अपना परिचय कभी दिया नहीं. अपने चमत्कारों से उनकी प्रसिद्धि चारों ओर फैल गई और वह कहलाने लगे शिरडी के साई बाबा. साई बाबा ने अनगिनत लोगों के कष्टों का निवारण किया. जो उनके पास आया, वह निराश होकर नहीं लौटा. वह सबके प्रति समभाव रखते थे. उनके यहां अमीर-ग़रीब, ऊंच-नीच, जाति-पांत, धर्म-मजहब का कोई भेदभाव नहीं था. समाज के सभी वर्ग के लोग उनके पास आते थे. बाबा ने एक हिंदू द्वारा बनवाई गई पुरानी मस्जिद को अपना ठिकाना बनाया और उसे नाम दिया द्वारका माई. बाबा नित्य भिक्षा लेने जाते थे और बड़ी सादगी के साथ रहते थे. भक्तों को उनमें सब देवताओं के दर्शन होते थे. साई बाबा के निर्वाण के कुछ समय पूर्व एक विशेष शकुन हुआ, जो उनके महासमाधि लेने की पूर्व सूचना थी. साई बाबा के पास एक ईंट थी, जिसे वह हमेशा अपने साथ रखते थे. बाबा उस पर हाथ टिकाकर बैठते थे और रात में सोते समय उस ईंट को तकिए की तरह अपने सिर के नीचे रखते थे. 1918 के सितंबर माह में दशहरे से कुछ दिन पूर्व मस्जिद की सफाई करते समय एक भक्त के हाथ से गिरकर वह ईंट टूट गई. द्वारका माई में उपस्थित भक्तगण स्तब्ध रह गए. साई बाबा ने लौट कर जब उस टूटी हुई ईंट को देखा तो वह मुस्कराकर बोले, यह ईंट मेरी जीवनसंगिनी थी. अब यह टूट गई है तो समझ लो कि मेरा समय भी पूरा हो गया. बाबा तबसे अपनी महासमाधि की तैयारी करने लगे.

15 अक्टूबर 1918 को विजयादशमी महापर्व के दिन जब बाबा ने सीमोल्लंघन करने की घोषणा की, तब भी लोग समझ नहीं पाए कि वह अपने महाप्रयाण का संकेत कर रहे हैं. महासमाधि के पूर्व साई बाबा ने अपनी अनन्य भक्त लक्ष्मीबाई शिंदे को आशीर्वाद के साथ 9 सिक्के देने के पश्चात कहा, मुझे मस्जिद में अब अच्छा नहीं लगता है, इसलिए तुम लोग मुझे बूटी के पत्थर वाड़े में ले चलो, जहां मैं आगे सुखपूर्वक रहूंगा. बाबा ने महानिर्वाण से पूर्व अपने अनन्य भक्त शामा से भी कहा था, मैं द्वारका माई और चावड़ी में रहते-रहते उकता गया हूं. 1975 में विजयादशमी के दिन अपरान्ह 2.30 बजे साई बाबा ने महासमाधि ले ली और तब बूटी साहिब द्वारा बनवाया गया वाड़ा (भवन) बन गया उनका समाधि स्थल. मुरलीधर श्रीकृष्ण के विग्रह की जगह कालांतर में साई बाबा की मूर्ति स्थापित हुई. महासमाधि लेने से पूर्व साई बाबा ने अपने भक्तों को यह आश्वासन दिया था कि पंचतत्वों से निर्मित उनका शरीर जब इस धरती पर नहीं रहेगा, तब उनकी समाधि भक्तों को संरक्षण प्रदान करेगी. आज तक सभी भक्तजन बाबा के इस कथन की सत्यता का निरंतर अनुभव करते चले आ रहे हैं. साई बाबा ने प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से अपने भक्तों को सदा अपनी उपस्थिति का बोध कराया है. उनकी समाधि अत्यंत जागृत शक्तिस्थल है. अध्यात्म की ऐसी महान विभूति के बारे में जितना भी लिखा जाए, कम ही होगा. उनकी यश पताका आज चारों तऱफ फहरा रही है. बाबा का साई नाम मुक्ति का महामंत्र बन गया है और शिरडी महातीर्थ.