आजादी के आन्दोलन के लिए साईं बाबा का तिलक को परामर्श

आज 1 अगस्त 2013 को श्री बाल गंगाधर तिलक जी की पुण्यतिथि है और इस अवसर पर साईं बाबा के विरोधियों का पर्दाफाश अभियान एक अहम् खुलासा करने जा रहा है - वो यह है कि श्री बाल गंगाधर तिलक जी शिर्डी साईं बाबा के भक्त थे और उनसे अक्सर मिलने भी जाते थे और आज़ादी के आन्दोलन को और प्रखर बनाने हेतु उनसे परामर्श भी लिया करते थे, तिलक जी को हिन्दू राष्ट्रवाद का पिता भी कहा जाता है, और साईं बाबा ने ही तिलक जी को गाँधी जी के बारे में पहले ही बता दिया था...


इसी विषय पर दक्षिण के सुपरस्टार नागार्जुन ने एक तेलगु भाषा में एक फिल्म का निर्माण भी किया है, इस फिल्म के बारे में टाइम्स ऑफ़ इंडिया का लेख यहाँ क्लिक करके पढ़ भी सकते हैं. ‪#‎exposeantisai‬

साईं बाबा और तिलक जी की गुप्त वार्ता का विवरण हमें श्री खापर्डे के संस्मरण से भी मिलता है जो स्वयं ही श्री बाल गंगाधर तिलक जी को पहली बार 19 मई 1917 को साईं बाबा से मिलवाने ले गए थे - 

Arrival of Bal Gangadhar Tilak at Shirdi
Khaparde came along with Bal Gangadhar Tilak, to Shirdi on 19 May 1917. Khaparde who had come earlier also to Shirdi, had seen the greatness of Baba personally. Hence, he brought Tilak who was the extremist leader in the Indian National Congress and a freedom fighter, to have darshan of Baba and take his advice in the matter of freedom movement. There were proofs that Baba gve Tilak certain advices secretly. According to the then prevailing conditions under British rule, these matters were kept secret. After Tilak left Shirdi, then District Collector of Ahmednagar sent a CID Officer to Shirdi to keep an eye on the activities of Sai Baba and send a confidential report.
There were several proofs to show that Baba predicted that India would certainly become an independent nation, through a non-violent revolution only and not through extremist violent acts. He gave advice to Tilak along the above lines and there were indications that from that day the extremist actions were toned down.
इस पेज की लिंक यहाँ क्लिक करके देखी जा सकती है.

जब एक हिन्दू राष्ट्रवादी श्री बाल गंगाधर तिलक जी जैसा व्यक्तित्व साईं बाबा का भक्त था, तो आज के तथाकथित हिन्दू साईं बाबा का विरोध किस आधार पर कर रहे हैं ???

टोक्यो (जापान) में विराजे श्री साईं


साईं बाबा का असली चित्र


साईं बाबा का असली चित्र


श्री साईं स्तुति


स्वार्थ नहीं परमार्थ भरा जीवन जगतगुरु साई बाबा की सीखों का सार है। इस सबक में समाया प्रेम, दया, क्षमा, करुणा का भाव हर हृदय से सारे कलह और दु:ख को निकाल कर मन व जीवन को सुख और आनंद से भर देता है। 

यही कारण है कि साईं के दरबार या स्मरण के लिए धर्म परंपराओं में साईं के परोपकारी जीवन और भक्तों पर की गई कृपा से जुड़े चमत्कारों को उजागर करती साईं स्तुति के पाठ का बहुत महत्व बताया गया है। 

धर्म आस्था है कि साई की महिमा से भरे इस अद्भुत स्तुति को पढऩे से भक्त सांई की याद में ऐसा डूबता है कि मन-मस्तिष्क और दृष्टि में साईं नजर आने लगते हैं। इसलिए यह साईं स्तुति जीवन के तमाम क्लेशों को अंत कर मनोरथ सिद्ध करने वाली भी मानी गई है। बोलिए, यहां लिखी यह साईं स्तुति, जो साईं चालीसा के नाम से प्रसिद्ध है -

पहले साई के चरणों में, अपना शीश नमाऊं मैं।

कैसे शिरडी साई आए, सारा हाल सुनाऊं मैं॥

कौन है माता, पिता कौन है, ये न किसी ने भी जाना।

कहां जन्म साई ने धारा, प्रश्न पहेली रहा बना॥

कोई कहे अयोध्या के, ये रामचंद्र भगवान हैं।

कोई कहता साई बाबा, पवन पुत्र हनुमान हैं॥

कोई कहता मंगल मूर्ति, श्री गजानंद हैं साई।

कोई कहता गोकुल मोहन, देवकी नन्दन हैं साई॥

शंकर समझे भक्त कई तो, बाबा को भजते रहते।

कोई कह अवतार दत्त का, पूजा साई की करते॥

कुछ भी मानो उनको तुम, पर साई हैं सच्चे भगवान।

ब़ड़े दयालु दीनबंधु, कितनों को दिया जीवन दान॥

कई वर्ष पहले की घटना, तुम्हें सुनाऊंगा मैं बात।

किसी भाग्यशाली की, शिरडी में आई थी बारात॥

आया साथ उसी के था, बालक एक बहुत सुन्दर।

आया, आकर वहीं बस गया, पावन शिरडी किया नगर॥

कई दिनों तक भटकता, भिक्षा माँग उसने दर-दर।

और दिखाई ऐसी लीला, जग में जो हो गई अमर॥

जैसे-जैसे अमर उमर ब़ढ़ी, ब़ढ़ती ही वैसे गई शान।

घर-घर होने लगा नगर में, साई बाबा का गुणगान॥

दिग् दिगंत में लगा गूंजने, फिर तो साई जी का नाम।

दीन-दुखी की रक्षा करना, यही रहा बाबा का काम॥

बाबा के चरणों में जाकर, जो कहता मैं हूं नि़धन।

दया उसी पर होती उनकी, खुल जाते दुःख के बंधन॥

कभी किसी ने मांगी भिक्षा, दो बाबा मुझको संतान।

एवं अस्तु तब कहकर साई, देते थे उसको वरदान॥

स्वयं दुःखी बाबा हो जाते, दीन-दुःखी जन का लख हाल।

अन्तःकरण श्री साई का, सागर जैसा रहा विशाल॥

भक्त एक मद्रासी आया, घर का बहुत बड़ा धनवान।

माल खजाना बेहद उसका, केवल नहीं रही संतान॥

लगा मनाने साईनाथ को, बाबा मुझ पर दया करो।

झंझा से झंकृत नैया को, तुम्हीं मेरी पार करो॥

कुलदीपक के बिना अंधेरा, छाया हुआ घर में मेरे।

इसलिए आया हूं बाबा, होकर शरणागत तेरे॥

कुलदीपक के अभाव में, व्यर्थ है दौलत की माया।

आज भिखारी बनकर बाबा, शरण तुम्हारी मैं आया॥

दे-दो मुझको पुत्र-दान, मैं ऋणी रहूंगा जीवन भर।

और किसी की आशा न मुझको, सिर्फ भरोसा है तुम पर॥

अनुनय-विनय बहुत की उसने, चरणों में धर के शीश।

तब प्रसन्न होकर बाबा ने , दिया भक्त को यह आशीश॥

अल्ला भला करेगा तेरा पुत्र जन्म हो तेरे घर।

कृपा रहेगी तुझ पर उसकी, और तेरे उस बालक पर॥

अब तक नहीं किसी ने पाया, साई की कृपा का पार।

पुत्र रत्न दे मद्रासी को, धन्य किया उसका संसार॥

तन-मन से जो भजे उसी का, जग में होता है उद्धार।

सांच को आंच नहीं हैं कोई, सदा झूठ की होती हार॥

मैं हूं सदा सहारे उसके, सदा रहूँगा उसका दास।

साई जैसा प्रभु मिला है, इतनी ही कम है क्या आस॥

मेरा भी दिन था एक ऐसा, मिलती नहीं मुझे रोटी।

तन पर कप़ड़ा दूर रहा था, शेष रही नन्हीं सी लंगोटी॥

सरिता सन्मुख होने पर भी, मैं प्यासा का प्यासा था।

दुर्दिन मेरा मेरे ऊपर, दावाग्नी बरसाता था॥

धरती के अतिरिक्त जगत में, मेरा कुछ अवलम्ब न था।

बना भिखारी मैं दुनिया में, दर-दर ठोकर खाता था॥

ऐसे में एक मित्र मिला जो, परम भक्त साई का था।

जंजालों से मुक्त मगर, जगती में वह भी मुझसा था॥

बाबा के दर्शन की खातिर, मिल दोनों ने किया विचार।

साई जैसे दया मूर्ति के, दर्शन को हो गए तैयार॥

पावन शिरडी नगर में जाकर, देख मतवाली मूरति।

धन्य जन्म हो गया कि हमने, जब देखी साई की सूरति॥

जब से किए हैं दर्शन हमने, दुःख सारा काफूर हो गया।

संकट सारे मिटै और, विपदाओं का अन्त हो गया॥

मान और सम्मान मिला, भिक्षा में हमको बाबा से। 

प्रतिबिम्‍बित हो उठे जगत में, हम साई की आभा से॥

बाबा ने सन्मान दिया है, मान दिया इस जीवन में।

इसका ही संबल ले मैं, हंसता जाऊंगा जीवन में॥

साई की लीला का मेरे, मन पर ऐसा असर हुआ।

लगता जगती के कण-कण में, जैसे हो वह भरा हुआ॥

`काशीराम´ बाबा का भक्त, शिरडी में रहता था।

मैं साई का साई मेरा, वह दुनिया से कहता था॥

सीकर स्वयं वस्त्र बेचता, ग्राम-नगर बाजारों में।

झंकृत उसकी हृदय तंत्री थी, साई की झंकारों में॥

स्तब़्ध निशा थी, थे सोये रजनी आंचल में चाँद सितारे।

नहीं सूझता रहा हाथ को हाथ तिमिर के मारे॥

वस्त्र बेचकर लौट रहा था, हाय ! हाट से काशी।

विचित्र ब़ड़ा संयोग कि उस दिन, आता था एकाकी॥

घेर राह में ख़ड़े हो गए, उसे कुटिल अन्यायी।

मारो काटो लूटो इसकी ही, ध्वनि प़ड़ी सुनाई॥

लूट पीटकर उसे वहाँ से कुटिल गए चम्पत हो।

आघातों में मर्माहत हो, उसने दी संज्ञा खो॥

बहुत देर तक प़ड़ा रह वह, वहीं उसी हालत में।

जाने कब कुछ होश हो उठा, वहीं उसकी पलक में॥

अनजाने ही उसके मुंह से, निकल प़ड़ा था साई।

जिसकी प्रतिध्वनि शिरडी में, बाबा को प़ड़ी सुनाई॥

क्षुब़्ध हो उठा मानस उनका, बाबा गए विकल हो।

लगता जैसे घटना सारी, घटी उन्हीं के सन्मुख हो॥

उन्मादी से इ़धर-उ़धर तब, बाबा लेगे भटकने।

सन्मुख चीजें जो भी आई, उनको लगने पटकने॥

और ध़धकते अंगारों में, बाबा ने अपना कर डाला।

हुए सशंकित सभी वहाँ, लख ताण्डवनृत्य निराला॥

समझ गए सब लोग, कि कोई भक्त प़ड़ा संकट में।

क्षुभित ख़ड़े थे सभी वहाँ, पर प़ड़े हुए विस्मय में॥

उसे बचाने की ही खातिर, बाबा आज विकल है।

उसकी ही पी़ड़ा से पीडित, उनकी अन्तःस्थल है॥

इतने में ही विविध ने अपनी, विचित्रता दिखलाई।

लख कर जिसको जनता की, श्रद्धा सरिता लहराई॥

लेकर संज्ञाहीन भक्त को, गा़ड़ी एक वहाँ आई।

सन्मुख अपने देख भक्त को, साई की आंखें भर आई॥

शांत, धीर, गंभीर, सिन्धु सा, बाबा का अन्तःस्थल।

आज न जाने क्यों रह-रहकर, हो जाता था चंचल॥

आज दया की मूर्ति स्वयं था, बना हुआ उपचारी।

और भक्त के लिए आज था, देव बना प्रतिहारी॥

आज भक्ति की विषम परीक्षा में, सफल हुआ था काशी।

उसके ही दर्शन की खातिर थे, उम़ड़े नगर-निवासी।

जब भी और जहां भी कोई, भक्त प़ड़े संकट में।

उसकी रक्षा करने बाबा, आते हैं पलभर में॥

युग-युग का है सत्य यह, नहीं कोई नई कहानी।

आपतग्रस्त भक्त जब होता, जाते खुद अन्तर्यामी॥

भेदभाव से परे पुजारी, मानवता के थे साई।

जितने प्यारे हिन्दू-मुस्लिम, उतने ही थे सिक्ख ईसाई॥

भेद-भाव मंदिर-मस्जिद का, तोड़-फोड़ बाबा ने डाला।

राह रहीम सभी उनके थे, कृष्ण करीम अल्लाताला॥

घण्टे की प्रतिध्वनि से गूंजा, मस्जिद का कोना-कोना।

मिले परस्पर हिन्दू-मुस्लिम, प्यार बढ़ा दिन-दिन दूना॥

चमत्कार था कितना सुन्दर, परिचय इस काया ने दी।

और नीम कडुवाहट में भी, मिठास बाबा ने भर दी॥

सब को स्नेह दिया साई ने, सबको संतुल प्यार किया।

जो कुछ जिसने भी चाहा, बाबा ने उसको वही दिया॥

ऐसे स्नेहशील भाजन का, नाम सदा जो जपा करे।

पर्वत जैसा दुःख न क्यों हो, पलभर में वह दूर टरे॥

साई जैसा दाता हमने, अरे नहीं देखा कोई।

जिसके केवल दर्शन से ही, सारी विपदा दूर गई॥

तन में साई, मन में साई, साई-साई भजा करो।

अपने तन की सुधि-बुधि खोकर, सुधि उसकी तुम किया करो॥

जब तू अपनी सुधि तज, बाबा की सुधि किया करेगा।

और रात-दिन बाबा-बाबा, ही तू रटा करेगा॥

तो बाबा को अरे ! विवश हो, सुधि तेरी लेनी ही होगी।

तेरी हर इच्छा बाबा को पूरी ही करनी होगी॥

जंगल, जगंल भटक न पागल, और ढूंढ़ने बाबा को।

एक जगह केवल शिरडी में, तू पाएगा बाबा को॥

धन्य जगत में प्राणी है वह, जिसने बाबा को पाया।

दुःख में, सुख में प्रहर आठ हो, साई का ही गुण गाया॥

गिरे संकटों के पर्वत, चाहे बिजली ही टूट पड़े।

साई का ले नाम सदा तुम, सन्मुख सब के रहो अड़े॥

इस बूढ़े की सुन करामत, तुम हो जाओगे हैरान।

दंग रह गए सुनकर जिसको, जाने कितने चतुर सुजान॥

एक बार शिरडी में साधु, ढ़ोंगी था कोई आया।

भोली-भाली नगर-निवासी, जनता को था भरमाया॥

जड़ी-बूटियां उन्हें दिखाकर, करने लगा वह भाषण।

कहने लगा सुनो श्रोतागण, घर मेरा है वृन्दावन॥

औषधि मेरे पास एक है, और अजब इसमें शक्ति।

इसके सेवन करने से ही, हो जाती दुःख से मुक्ति॥

अगर मुक्त होना चाहो, तुम संकट से बीमारी से।

तो है मेरा नम्र निवेदन, हर नर से, हर नारी से॥

लो खरीद तुम इसको, इसकी सेवन विधियां हैं न्यारी।

यद्यपि तुच्छ वस्तु है यह, गुण उसके हैं अति भारी॥

जो है संतानहीन यहां यदि, मेरी औषधि को खाए।

पुत्र-रत्न हो प्राप्त, अरे वह मुंह मांगा फल पाए॥

औषधि मेरी जो न खरीदे, जीवन भर पछताएगा।

मुझ जैसा प्राणी शायद ही, अरे यहां आ पाएगा॥

दुनिया दो दिनों का मेला है, मौज शौक तुम भी कर लो।

अगर इससे मिलता है, सब कुछ, तुम भी इसको ले लो॥

हैरानी बढ़ती जनता की, लख इसकी कारस्तानी।

प्रमुदित वह भी मन-ही-मन था, लख लोगों की नादानी॥

खबर सुनाने बाबा को यह, गया दौड़कर सेवक एक।

सुनकर भृकुटी तनी और, विस्मरण हो गया सभी विवेक॥

हुक्म दिया सेवक को, सत्वर पकड़ दुष्ट को लाओ।

या शिरडी की सीमा से, कपटी को दूर भगाओ॥

मेरे रहते भोली-भाली, शिरडी की जनता को।

कौन नीच ऐसा जो, साहस करता है छलने को॥

पलभर में ऐसे ढोंगी, कपटी नीच लुटेरे को।

महानाश के महागर्त में पहुँचा, दूँ जीवन भर को॥

तनिक मिला आभास मदारी, क्रूर, कुटिल अन्यायी को।

काल नाचता है अब सिर पर, गुस्सा आया साई को॥

पलभर में सब खेल बंद कर, भागा सिर पर रखकर पैर।

सोच रहा था मन ही मन, भगवान नहीं है अब खैर॥

सच है साई जैसा दानी, मिल न सकेगा जग में।

अंश ईश का साई बाबा, उन्हें न कोई भी मुश्किल जग में॥

स्नेह, शील, सौजन्य आदि का, आभूषण धारण कर।

बढ़ता इस दुनिया में जो भी, मानव सेवा के पथ पर॥

वही जीत लेता है जगती के, जन जन का अन्तःस्थल।

उसकी एक उदासी ही, जग को कर देती है विह्वल॥

जब-जब जग में भार पाप का, बढ़-बढ़ ही जाता है।

उसे मिटाने की ही खातिर, अवतारी ही आता है॥

पाप और अन्याय सभी कुछ, इस जगती का हर के।

दूर भगा देता दुनिया के, दानव को क्षण भर के॥

ऐसे ही अवतारी साई, मृत्युलोक में आकर।

समता का यह पाठ पढ़ाया, सबको अपना आप मिटाकर ॥

नाम द्वारका मस्जिद का, रखा शिरडी में साई ने।

दाप, ताप, संताप मिटाया, जो कुछ आया साई ने॥

सदा याद में मस्त राम की, बैठे रहते थे साई।

पहर आठ ही राम नाम को, भजते रहते थे साई॥

सूखी-रूखी ताजी बासी, चाहे या होवे पकवान।

सौदा प्यार के भूखे साई की, खातिर थे सभी समान॥

स्नेह और श्रद्धा से अपनी, जन जो कुछ दे जाते थे।

बड़े चाव से उस भोजन को, बाबा पावन करते थे॥

कभी-कभी मन बहलाने को, बाबा बाग में जाते थे।

प्रमुदित मन में निरख प्रकृति, छटा को वे होते थे॥

रंग-बिरंगे पुष्प बाग के, मंद-मंद हिल-डुल करके।

बीहड़ वीराने मन में भी स्नेह सलिल भर जाते थे॥

ऐसी समुधुर बेला में भी, दुख आपात, विपदा के मारे।

अपने मन की व्यथा सुनाने, जन रहते बाबा को घेरे॥

सुनकर जिनकी करूणकथा को, नयन कमल भर आते थे।

दे विभूति हर व्यथा, शांति, उनके उर में भर देते थे॥

जाने क्या अद्भुत शक्ति, उस विभूति में होती थी।

जो धारण करते मस्तक पर, दुःख सारा हर लेती थी॥

धन्य मनुज वे साक्षात् दर्शन, जो बाबा साई के पाए।

धन्य कमल कर उनके जिनसे, चरण-कमल वे परसाए॥

काश निर्भय तुमको भी, साक्षात् साई मिल जाता।

वर्षों से उजड़ा चमन अपना, फिर से आज खिल जाता॥

गर पकड़ता मैं चरण श्री के, नहीं छोड़ता उम्रभर।

मना लेता मैं जरूर उनको, गर रूठते साई मुझ पर॥

‪#‎exposeantisai‬

साईं बाबा का अपने भक्त को गीता पढने के लिए कहना


साईं बाबा के विरोधी कहते हैं कि साईं बाबा हमेशा ही मुस्लिम धर्म से सम्बंधित बाते ही बोला करते थे, उनके झूठ का पर्दाफाश इस कथा से हो जाएगा - 

ब्रह्मविद्या (अध्यात्म) का जो भक्त अध्ययन करते थे, उन्हें साईं बाबा सदैव प्रोत्साहित करते थे। इसका एक उदाहरण है कि एक समय बापूसाहेब जोग का एक पार्सल आया, जिसमें श्री लोकमान्य तिलक कृत गीता-भाष्य की एक प्रति थी, जिसे काँख में दबाये हुये वे मस्जिद में आये। जब वे चरण-वन्दना के लिये झुके तो वह पार्सल बाबा के श्री-चरणों पर गिर पड़ा। तब बाबा उनसे पूछने लगे कि इसमें क्या है। श्री जोग ने तत्काल ही पार्सल से वह पुस्तक निकालकर बाबा के कर—कमलों में रख दी। बाबा ने थोड़ी देर उसके कुछ पृष्ठ देखकर जेब से एक रुपया निकाला और उसे पुस्तक पर रखकर जोग को लौटा दिया और कहने लगे कि, "इसका ध्यानपूर्वक अध्ययन करते रहो, इससे तुम्हारा कल्याण होगा।" (श्री साई सच्चरित्र, अध्याय 27)

साईं बाबा के विरोधियों की मुर्खता की पराकाष्ठा


साईं बाबा के विरोधियों की मुर्खता की पराकाष्ठा और साईं भक्तो का इनको करारा जबाब .. एक ताज़ा उदाहरण 

साईं बाबा और बकरा काटने का सच - साईं विरोधियों का सबसे बड़ा पर्दाफाश

(फोटो पर क्लिक करके इसका आकार बड़ा किया जा सकता है.. )

साईं बाबा के विरोधी हमेशा ही कहते रहते हैं ( कॉपी पेस्ट करते रहते हैं ) कि साईं बाबा बकरा काटते थे, साईं बाबा बकरा कटवाते थे.. आज हम आपको बता रहे हैं कि इस बकरे के काटने के पीछे की असली कहानी क्या थी और क्या बकरा सचमुच में काटा भी गया था या नहीं ... ?

बाबा की दिव्‍य शक्ति और शिर्डी


शिरडी के साई बाबा आज असंख्य लोगों के आराध्य देव बन चुके हैं. उनकी कीर्ति दिन दोगुनी-रात चौगुनी बढ़ती जा रही है. यद्यपि बाबा के द्वारा नश्वर शरीर को त्यागे हुए अनेक वर्ष बीत चुके हैं, परंतु वह अपने भक्तों का मार्गदर्शन करने के लिए आज भी सूक्ष्म रूप में विद्यमान हैं. शिरडी में बाबा की समाधि से भक्तों को अपनी शंका और समस्या का समाधान मिलता है. बाबा की दिव्य शक्ति के प्रताप से शिरडी अब महातीर्थ बन गया है. कहा जाता है कि 1854 में पहली बार बाबा जब शिरडी में देखे गए, तब वह लगभग सोलह वर्ष के थे. शिरडी के नाना चोपदार की वृद्ध माता ने उनका वर्णन इस प्रकार किया है- एक तरुण, स्वस्थ, फुर्तीला तथा अति सुंदर बालक सर्वप्रथम नीम के वृक्ष के नीचे समाधि में लीन दिखाई पड़ा. उसे सर्दी-गर्मी की ज़रा भी चिंता नहीं थी. इतनी कम उम्र में उस बालयोगी को अति कठिन तपस्या करते देखकर लोगों को बड़ा आश्चर्य हुआ. दिन में वह साधक किसी से भेंट नहीं करता था और रात में निर्भय होकर एकांत में घूमता था. गांव के लोग जिज्ञासावश उससे पूछते थे कि वह कौन है और उसका कहां से आगमन हुआ है? उस नवयुवक के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर लोग उसकी तऱफ सहज ही आकर्षित हो जाते थे. वह सदा नीम के पेड़ के नीचे बैठा रहता था और किसी के भी घर नहीं जाता था. यद्यपि वह देखने में नवयुवक लगता था, तथापि उसका आचरण महात्माओं के सदृश था. वह त्याग और वैराग्य का साक्षात मूर्तिमान स्वरूप था. कुछ समय शिरडी में रहकर वह तरुण योगी किसी से कुछ कहे बिना वहां से चला गया. कई वर्ष बाद चांद पाटिल की बारात के साथ वह योगी पुन: शिरडी पहुंचा. खंडोबा के मंदिर के पुजारी म्हालसापति ने उस फकीर का जब आओ साई कहकर स्वागत किया, तबसे उनका नाम साई पड़ गया. शादी हो जाने के बाद वह चांद पाटिल की बारात के साथ वापस नहीं लौटे और सदा-सदा के लिए शिरडी में बस गए. वह कौन थे? उनका जन्म कहां हुआ था? उनके माता-पिता का नाम क्या था? ये सब प्रश्न अनुत्तरित हैं. बाबा ने अपना परिचय कभी दिया नहीं. अपने चमत्कारों से उनकी प्रसिद्धि चारों ओर फैल गई और वह कहलाने लगे शिरडी के साई बाबा. साई बाबा ने अनगिनत लोगों के कष्टों का निवारण किया. जो उनके पास आया, वह निराश होकर नहीं लौटा. वह सबके प्रति समभाव रखते थे. उनके यहां अमीर-ग़रीब, ऊंच-नीच, जाति-पांत, धर्म-मजहब का कोई भेदभाव नहीं था. समाज के सभी वर्ग के लोग उनके पास आते थे. बाबा ने एक हिंदू द्वारा बनवाई गई पुरानी मस्जिद को अपना ठिकाना बनाया और उसे नाम दिया द्वारका माई. बाबा नित्य भिक्षा लेने जाते थे और बड़ी सादगी के साथ रहते थे. भक्तों को उनमें सब देवताओं के दर्शन होते थे. साई बाबा के निर्वाण के कुछ समय पूर्व एक विशेष शकुन हुआ, जो उनके महासमाधि लेने की पूर्व सूचना थी. साई बाबा के पास एक ईंट थी, जिसे वह हमेशा अपने साथ रखते थे. बाबा उस पर हाथ टिकाकर बैठते थे और रात में सोते समय उस ईंट को तकिए की तरह अपने सिर के नीचे रखते थे. 1918 के सितंबर माह में दशहरे से कुछ दिन पूर्व मस्जिद की सफाई करते समय एक भक्त के हाथ से गिरकर वह ईंट टूट गई. द्वारका माई में उपस्थित भक्तगण स्तब्ध रह गए. साई बाबा ने लौट कर जब उस टूटी हुई ईंट को देखा तो वह मुस्कराकर बोले, यह ईंट मेरी जीवनसंगिनी थी. अब यह टूट गई है तो समझ लो कि मेरा समय भी पूरा हो गया. बाबा तबसे अपनी महासमाधि की तैयारी करने लगे.

15 अक्टूबर 1918 को विजयादशमी महापर्व के दिन जब बाबा ने सीमोल्लंघन करने की घोषणा की, तब भी लोग समझ नहीं पाए कि वह अपने महाप्रयाण का संकेत कर रहे हैं. महासमाधि के पूर्व साई बाबा ने अपनी अनन्य भक्त लक्ष्मीबाई शिंदे को आशीर्वाद के साथ 9 सिक्के देने के पश्चात कहा, मुझे मस्जिद में अब अच्छा नहीं लगता है, इसलिए तुम लोग मुझे बूटी के पत्थर वाड़े में ले चलो, जहां मैं आगे सुखपूर्वक रहूंगा. बाबा ने महानिर्वाण से पूर्व अपने अनन्य भक्त शामा से भी कहा था, मैं द्वारका माई और चावड़ी में रहते-रहते उकता गया हूं. 1975 में विजयादशमी के दिन अपरान्ह 2.30 बजे साई बाबा ने महासमाधि ले ली और तब बूटी साहिब द्वारा बनवाया गया वाड़ा (भवन) बन गया उनका समाधि स्थल. मुरलीधर श्रीकृष्ण के विग्रह की जगह कालांतर में साई बाबा की मूर्ति स्थापित हुई. महासमाधि लेने से पूर्व साई बाबा ने अपने भक्तों को यह आश्वासन दिया था कि पंचतत्वों से निर्मित उनका शरीर जब इस धरती पर नहीं रहेगा, तब उनकी समाधि भक्तों को संरक्षण प्रदान करेगी. आज तक सभी भक्तजन बाबा के इस कथन की सत्यता का निरंतर अनुभव करते चले आ रहे हैं. साई बाबा ने प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से अपने भक्तों को सदा अपनी उपस्थिति का बोध कराया है. उनकी समाधि अत्यंत जागृत शक्तिस्थल है. अध्यात्म की ऐसी महान विभूति के बारे में जितना भी लिखा जाए, कम ही होगा. उनकी यश पताका आज चारों तऱफ फहरा रही है. बाबा का साई नाम मुक्ति का महामंत्र बन गया है और शिरडी महातीर्थ.

भक्ति का बीजारोपण


एक समय ठाणे के श्रीकौपीनेश्वर मंदिर में श्री दासगणू कीर्तन और श्री साईबाबा का गुणगान कर रहे थे. श्रोताओं में एक चोलकर नामक व्यक्ति, जो ठाणे के दीवानी न्यायालय में एक अस्थायी कर्मचारी था, भी वहां उपस्थित था. दासगणू का कीर्तन सुनकर वह बहुत प्रभावित हुआ और मन ही मन बाबा को नमन कर प्रार्थना करने लगा कि हे बाबा, मैं एक निर्धन व्यक्ति हूं और अपने कुटुम्ब का भरण-पोषण भी भली भांति करने में असमर्थ हूं. यदि मैं आपकी कृपा से विभागीय परीक्षा में उत्तीर्ण हो गया तो आपके श्री चरणों में उपस्थित होकर आपके निमित्त मिश्री का प्रसाद बांटूंगा. भाग्य ने पल्टा खाया और चोलकर परीक्षा में उत्तीर्ण हो गया. उसकी नौकरी भी स्थायी हो गई. अब केवल संकल्प ही शेष रहा. शुभस्य शीघ्रम. श्री चोलकर निर्धन तो था ही और उसका कुटुम्ब भी बड़ा था. अतः वह शिरडी यात्रा के लिए मार्ग-व्यय जुटाने में असमर्थ हुआ. ठाणे ज़िले में एक कहावत प्रचलित है कि नाठे घाट व सहाद्रि पर्वत श्रेणियां कोई भी सरलतापूर्वक पार कर सकता है, परंतु ग़रीब को उंबर घाट (गृह-चक्कर) पार करना बड़ा ही कठिन होता है.

श्री चोलकर अपना संकल्प शीघ्रातिशीघ्र पूरा करने के लिए उत्सुक था. उसने मितव्ययी बनकर, अपना खर्च घटाकर पैसा बचाने का निश्चय किया. इस कारण उसने बिना शक्कर की चाय पीना प्रारंभ किया और इस तरह कुछ द्रव्य एकत्रित कर वह शिरडी पहुंचा. उसने बाबा का दर्शन कर उनके चरणों पर गिरकर नारियल भेंट किया तथा अपने संकल्पानुसार श्रद्धा से मिश्री वितरित की और बाबा से बोला कि आपके दर्शन से मेरे हृदय को अत्यंत प्रसन्नता हुई है. मेरी समस्त इच्छाएं तो आपकी कृपादृष्टि से उसी दिन पूर्ण हो चुकी थीं. मस्जिद में श्री चोलकर का आतिथ्य करने वाले श्री बापूसाहेब जोग भी वहीं उपस्थित थे. जब वे दोनों वहां से जाने लगे तो बाबा जोग से इस प्रकार कहने लगे कि अपने अतिथि को चाय के प्याले अच्छी तरह शक्कर मिलाकर देना. इन अर्थपूर्ण शब्दों को सुनकर श्री चोलकर का हृदय भर आया और उसे बड़ा आश्चर्य हुआ. उनके नेत्रों से अश्रु धाराएं प्रवाहित होने लगीं और वे प्रेम से विहृल होकर श्रीचरणों पर गिर पड़े. श्री जोग को अधिक शक्कर सहित चाय के प्याले अतिथि को दो, यह विचित्र आज्ञा सुनकर बड़ा कोतूहल हो रहा था कि यथार्थ में इसका अर्थ क्या है.

बाबा का उद्देश्य तो श्री चोलकर के हृदय में केवल भक्ति का बीजारोपण करना ही था. बाबा ने उन्हें संकेत किया था कि वे शक्कर छोड़ने के गुप्त निश्चय से भली भांति परिचित हैं. बाबा का यह कथन था कि यदि तुम श्रद्धापूर्वक मेरे सामने हाथ फैलाओगे तो मैं सदैव तुम्हारे साथ रहूंगा. यद्यपि मैं शरीर से तो यहां हूं, परंतु मुझे सात समुद्रों के पार भी घटित होने वाली घटनाओं का ज्ञान है. मैं तुम्हारे हृदय में विराजीत, तुम्हारे अंतरस्थ ही हूं. जिसका तुम्हारे तथा समस्त प्राणियों के हृदय में वास है, उसकी ही पूजा करो. धन्य और सौभाग्यशाली वही है, जो मेरे सर्वव्यापी स्वरूप से परिचित है. बाबा ने श्री चोलकर को कितनी सुंदर तथा महत्वपूर्ण शिक्षा प्रदान की.

साईं ने समझाया दान का महत्व


एक बार शिरडी के साई बाबा से उनकी परमभक्तलक्ष्मी ने पूछा, बाबा द्वारका माई में हर समय धूनी जलती रहती है. सुबह-शाम ग़रीबों की भूख मिटाती यह रसोई क्या आपके लिए दो रोटी नहीं दे सकती? बाबा ने बड़े प्रेम से उसे समझाते हुए कहा कि लक्ष्मी, इस जन्म में जब फक़ीर का चोला पहन ही लिया तो उसका धर्म भी निभाना पड़ेगा. इस दीन दुनिया से निर्लिप्त फक़ीर का धर्म है हर गृहस्थ के घर जाकर भोग करके अपना निर्वाह करे, ताकि वे गृहस्थ भी दान के अपने धर्म का पालन कर पाएं.

गृहस्थ जब तक अपनी आय और अपने भोजन का कुछ प्रतिशत पुण्य आत्माओं, ग़रीबों और जीव-जंतुओं को दान करता रहेगा, उसका घर धन-धान्य और ख़ुशियों से भरा रहेगा. बाबा ने यही किया. अपने जीवन के अंतिम दिन तक वह अपनी बिगड़ती हालत की परवाह न करते हुए फक़ीरी के इस धर्म को निभाते रहे. सचमुच साथियों, भारतीय शास्त्रों में दान के महत्व का बहुत गुणगान है. हर धर्म के प़ैगंबर या आध्यात्मिक गुरुओं ने मानव जीवन को सार्थक और सफल बनाने के लिए, जीवन का हर सुख पाने के लिए हर तरह के दान की बात कही है. ज़रा सोचें कि दान देकर हमें क्या प्राप्त होगा? आप अपने अनुभवों को याद करें. हमें हमेशा किसी को कुछ देकर ख़ुशी ही होती है और नहीं तो किसी भूखे को भोजन कराकर या नेत्रहीन व्यक्ति को सड़क पार कराकर हम इतना अच्छा क्यों महसूस करते हैं? ऐसा इसलिए, क्योंकि प्रकृति की ही तरह हर जीवात्मा का मूल संस्कार है देना. प्रकृति का नियम भी है, जो जितना देगा, उसे उतना ही मिलेगा. लेकिन जब हम कुछ दे रहे होते हैं, तब हमें पता नहीं चलता कि हम दे रहे हैं, क्योंकि देना तो हमारे मूल में है और यही देयता की धारणा हमें दिव्यता प्रदान करती है. लेकिन दुख की बात यह है कि भय और संशय के इस माहौल में दान और धर्म के इस प्रकृति प्रदत्त गुण को भी हमने कारोबार का एक हिस्सा बना लिया है. 

कभी अपने ग्रहों के दोष ठीक करने के लिए कभी किसी और फल की प्राप्ति के लिए. कई बार तो अपने सिर पर आए संकट दूसरों पर डालने के लिए हमने दान देना शुरू कर दिया. आज अध्यात्म का काम करना भी फैशन हो गया है और दान देना स्टेटस सिंबल बन गया है. लेकिन जो प्रकृति का गुण आप में स्वतः ही है, उससे मिलने वाले पुण्यों से ख़ुद को परंपराओं या नियमों के चक्रव्यूह में फंसाकर वंचित न करें. आज स्थूल में कुछ देने की स्थिति नहीं भी है तो सूक्ष्म में शुभ भावना, शुभकामना, सच्ची ईमानदारी की भावना, प्रेम एवं वात्सल्य का भाव तो दान कर ही सकते हैं.

किसी ग़रीब की आवाज़ सुनकर उसके आंसुओं को पोछ तो सकते हैं. रोते को सांत्वना तो दे सकते हैं, किसी डूबते को आशा और विश्वास का तिनका तो दे ही सकते हैं. आप और हम इतना भी कर लेंगे तो विश्वास रखिए कि सामने वाला आपके हौसले या विश्वास से अपने आप ही उठ जाएगा और अपने जीवन को सफल कर पाएगा. दान पैसे का, दवा का, अनाज का या शुभकामना का, जिस भाव से दिया जाए, वह महत्वपूर्ण होता है. ऐसे भी लोग हैं, जो रक्तदान करते हैं, नेत्रदान करते हैं. और कई तो अपने मरणोपरांत अपने शरीर को दान करने की वसीयत तक कर देते हैं.

ऊदी का चमत्कार


साईं बाबा जब दामोदर तथा कुछ अन्य शिष्यों को साथ लेकर तात्या के घर पहुंचे, तो तात्या बेहोशी में न जाने क्या-क्या बड़बड़ा रहा था| उसकी माँ वाइजाबाई उसके सिरहाने बैठी उसका माथा सहला रही थी| तात्या बहुत कमजोर दिखाई पड़ रहा था|

साईं बाबा को देखते ही वाइजाबाई उठकर खड़ी हो गई| उसकी आँखें शायद रातभर सो पाने के कारण सूजी हुई थीं और चेहरा उतरा हुआ था| उसे बेटे की बहुत चिंता सता रही थी| बुखार ने तात्या के शरीर को एकदम से तोड़ के रख दिया था|

"साईं बाबा!" वाइजाबाई कहते-कहते रो पड़ी|

"क्या बात है मां, तुम रो क्यों रही हो?" साईं बाबा तात्या के पास जाकर बैठ गये|

वाइजाबाई बोली-"जब से आपके पास से आया है, बुखार में भट्टी की तरह तप रहा है और बेहोशी में न जाने क्या-क्या उल्टा सीधा बड़बड़ा रहा है|"

"देखूं, जरा कैसे, क्या हो गया है इसे?" दुपट्टे के छोर में बंधी भभूति निकाली और तात्या के माथे पर मलने लगे|

वाइजाबाई, दामोदर और साईं बाबा के अन्य शिष्य इस बात को बड़े ध्यान से देख रहे थे|

तात्या के होंठ धीरे-धीरे खुल रहे थे| वह कुछ बड़बड़ा-सा रहा था| उसका स्वर इतना धीमा और अस्पष्ट था कि किसी की समझ में कुछ भी नहीं आ रहा था|

"साईं बाबा!" अचानक तात्या के होठों से निकला और उसने आँखें खोल दीं|

"क्या हुआ तात्या! मैं तो कब से तुम्हारा इंतजार कर रहा था? जब तुम नहीं आये तो मैं स्वयं तुम्हारे पास चला आया|" साईं बाबा ने स्नेहभरे स्वर में कहा| उनके होठों पर हल्की-सी मुस्कान तैर रही थी और आँखों में अजीब-सी चमक|

"बाबा ! मुझे न जाने क्या हो गया है? आपके पास से आया और खाना खाकर सो गया| ऐसा सोया कि अब आँखें खुलीं हैं|" तात्या ने कहा|

"कल से तू बुरी तरह से बुखार में तप रहा है|" वाइजाबाई अपने बेटे की ओर देखते हुई बोली - "मैंने सारी रात तेरे सिरहाने बैठकर काटी है|"

"बुखार...! मुझे बुखार कहां है| मेरा बदन तो बर्फ जैसा ठंडा है|" इतना कहते हुए तात्या ने अपना दायां हाथ आगे बढ़ा दिया और फिर दूसरा हाथ दामोदर कि ओर बढ़ाते हुए बोला -"लो भाई, जरा तुम भी देखो, मुझे बुखार है क्या?"

वाइजाबाई और दामोदर ने तात्या का हाथ देखा| अब उसे जरा-सा भी बुखार नहीं था| वाइजा ने जल्दी ने तात्या के माथे पर हथेली रखी| थोड़ी देर पहले उसका माथा गरम तवे की तरह जल रहा था, पर अब तो बर्फ कि भांति ठंडा था| वाइजा और दामोदर हैरत के साथ साईं बाबा की ओर देखने लगे|

साईं बाबा मंद-मंद मुस्करा रहे थे|

वाइजाबाई यह चमत्कार देखकर हैरान रह गयी थी|

तभी साईं बाबा अचानक बोले -"मां, मुझे बहुत भूख लगी है, रोटी नहीं खिलाओगी?"

वाइजाबाई ने तुरंत हड़बड़ाकर कहा -"क्यों नहीं, अभी लायी|" और फिर वह तेजी से अंदर चली गयी|

थोड़ी देर में जब वह अंदर से आयी, तो उसके हाथ में थाली थी, जिसमें कुछ रोटियां और दाल से भरा कटोरा था|

साईं बाबा ने अपने दुपट्टे के कोने में रोटियां बांध लीं और तात्या की ओर देखते हुए बोले-"चलो तात्या, आज तुम भी मेरे साथ ही भोजन करना|"

तात्या एकदम बिस्तर से उठकर खड़ा हो गया| उसे देखकर इस बात का विश्वास नहीं हो रहा था कि कुछ देर पहले वह बहुत तेज बुखार से तप रहा था| और न ही उसमें अब कमजोरी थी|

"ठहरो बाबा, मैं और रोटियां ले लाऊं|" वाइजाबाई ने कहा|

"नहीं माँ, बहुत हैं| हम सबका पेट भर जायेगा|" साईं बाबा ने कहा| फिर वह अपने शिष्यों को साथ लेकर द्वारिकामाई मस्जिद की ओर चल दिये|

उनके जाने के बाद वाइजाबाई सोच में पड़ गयी| उसने कुल चार रोटियां ही दी हैं| इनसे सबका पेट कैसे भर जायेगा? अतएव उसने जल्दी-जल्दी से और रोटियां बनाईं, फिर उन्हें लेकर मस्जिद की ओर चल दी|

जब वह रोटियां लेकर द्वारिकामाई मस्जिद पहुंची तो साईं बाबा सभी लोगों के साथ बैठे खाना का रहे थे| पांचों कुत्ते भी उनके पास ही बैठे थे| वाइजाबाई ने रोटियों की टोकरी साईं बाबा के सामने रख दी|

"माँ, तुमने बेकार में ही इतनी तकलीफ की| मेरा पेट तो भर गया है| इन लोगों से पूछ लो| जरूरत हो तो दे दो|" साईं बाबा ने रोटी का आखिरी टुकड़ा खाकर लम्बी डकार लेते हुए कहा|

वाइजाबाई ने बारी-बारी से सबसे पूछा| सबने यही कहा कि उनका पेट भर चूका है| उन्हें और रोटी की जरूरत नहीं| वाइजाबाई ने रोटी के कुछ टुकड़े कुत्तों के सामने डाले, लेकिन कुत्तों ने उन टुकड़ों की ओर देखा तक नहीं| अब 
वाइजाबाई के हैरानी की सीमा न रही| उसने साईं बाबा को कुल चार रोटियां दी थीं| उन चार रोटियों से भला इतने आदमियों और कुत्तों का पेट कैसे भर गया?

उसकी समझ में कुछ भी न आया|

उसे साईं बाबा के चमत्कार के बारे में पता न था| एक प्रकार से यह उनका एक और चमत्कार था, जो वह प्रत्यक्ष देख और अनुभव कर रही थी|

शाम तक तात्या के बुखार उतरने की बात गांव से एक छोर से दूसरे छोर तक फैल गई|

"धूनी की भभूति माथे से लगाते ही तात्या का बुखार से आग जैसा जलता शरीर बर्फ जैसा ठंडा पड़ गया|" एक व्यक्ति ने पंडितजी को बताया|

"अरे जा-जा, ऐसे कैसे हो सकता है? बर्फ जैसा ठंडा पड़ गया बुखार से तपता शरीर| सुबह दामोदर खुद तात्या को देखकर आया था| उसका शरीर भट्टी की तरह दहक रहा था| वह तो पिछली रात से ही बुखार के मारे बेहोश पड़ा था| 
बेहोशी में न जाने क्या-क्या उल्टा-सीधा बड़बड़ा रहा था| इतना तेज बुखार और सन्निपात, चुटकीभर धूनी की राख से छूमंतर हो जाये, तो फिर दुनिया ही न बदल जाये|" पंडितजी ने अविश्वासभरे स्वर में कहा|

"यह बात एकदम सच है पंडितजी !" उस व्यक्ति ने कहा -" और इससे भी ज्यादा हैरानी की बात यह है पंडितजी !"

"वह क्या?" पंडितजी का दिल किसी अनिष्ट की आंशका से जोर-जोर से धड़कने लगा|

"साईं बाबा ने तात्या के घर जाकर वाइजाबाई से खाने के लिए रोटियां मांगीं| उसने कुल चार रोटियां दी थीं| उस समय साईं बाबा के साथ दामोदर और कई अन्य शिष्य भी थे| वाइजाबाई ने सोचा कि चार रोटियों से इतने आदमियों का पेट कैसे भरेगा? फिर साईं बाबा के साथ उनके कुत्ते भी तो खाना खाते हैं|

वाइजाबाई ने और रोटियां बनाईं और लेकर मस्जिद गई| सबने यही कहा कि उनका पेट भर चुका है| वाइजाबाई ने एक रोटी तोड़कर कुत्तों के आगे डाली, लेकिन कुत्तों ने रोटी को सूंघा भी नहीं| अब आप ही बताइए, सब लोगों के हिस्से मैं मुश्किल से चौथाई रोटी आयी होगी| एक-एक आदमी चार-छ: रोटियों से कम तो खाता नहीं है| फिर उसका एक टुकड़े में ही कैसे पेट भर गया, चमत्कार है न !" उस व्यक्ति ने शुरू से अंत तक सारी कहानी ज्यों कि त्यों पंडितजी को सुना दी|

उसकी बात सुन पंडितजी बुरी तरह से झल्लाकर बोले-"बेकार की बकवास मत करो| यह सब झूठा प्रचार है| तुम्हारा नाम दादू है ना| जैसा तुम्हारा नाम है वैसी ही तुम्हारी अक्ल भी है| मैं इनमें से किसी भी बात पर विश्वास करने के लिए तैयार नहीं| यह उन सब छोकरों की मनगढ़ंत कहानी है, जो रात-दिन गांजे के लालच में उसके साथ चिपटे रहते हैं| साईं बाबा खुद भी गांजे के दम लगाता है तथा गांव के सब छोकरों को अपने जैसा गंजेड़ी बनाकर रख देगा|"

पंडितजी की बात सुनकर दादू को बहुत तेज गुस्सा आया, लेकिन कुछ सोचकर वह चुप रह गया| उसकी पत्नी पिछले कई महीनों से बीमार थी| उसका इलाज पंडितजी कर रहे थे, पर कोई लाभ न हो रहा था| पंडितजी दवा के नाम पर उससे बराबर पैसा ऐंठ रहे थे|

पंडितजी साईं बाबा के प्रति पहले से ही ईर्ष्या व द्वेष की भावना रखते थे| दादू की बातें सुनकर उनकी ईर्ष्या और द्वेष की भावना और ज्यादा भड़क उठी| साईं बाबा पर गुस्सा उतारना तो संभव न था, दादू पर ही अपना गुस्सा उतारने लगे| उन्होंने गुस्से में जल-भुनकर दादू की ओर देखते हुए कहा - "यदि इतना ही विश्वास है कि धूनी की राख लगते ही तात्या का बुखार छूमंतर हो गया तो तू अपनी घरवाली को क्यों नहीं ले जाता उसके पास? आज से वो ही तेरी घरवाली का इलाज करेगा| मैं आज से तेरी पत्नी का इलाज बंद करता हूं, जा, अपने ढोंगी साईं बाबा के पास और धूनी की सारी राख लाकर मल दे अपनी घरवाली के सारे शरीर पर| बीवी में मुट्ठीभर हडि्डयां बची हैं| धूनी की राख मलते ही बीमारी पल में छूमंतर हो जायेगी| जा भाग जा यहां से|"

"ऐसा मत कहो, पंडितजी! मैं गरीब आदमी हूं|" दादू ने हाथ जोड़ते हुए पंडितजी से कहा| पर, पंडितजी का गुस्सा तो इस समय सातवें आसमान पर पहुंचा हुआ था|

दादू ने बड़ी नम्रता से कहा - "पंडितजी ! मैं साईं बाबा की प्रशंसा कहां कर रहा था| मैंने तो केवल सुनी हुई बात आपको बतलायी है|"

"चुप कर, आज से तेरी घरवाली का इलाज वही करेगा|" पंडितजी ने क्रोध से दांत भींचते हुए दृढ़ स्वर में कहा|

दादू पंडितजी का गुस्सा देखर हैरान था| साईं बाबा के नाम पर इतनी जिद्द| पंडितजी पर दादू की प्रार्थना का कोई प्रभाव न पड़ा, बल्कि दादू पर पंडितजी का गुस्सा बढ़ता ही चला जा रहा था|

दादू का हाथ पकड़कर, एक ओर को झटका देते हुए कहा - "मैं जात का ब्राह्मण एक बार जो कुछ कह देता है, वह अटल होता है मैंने जो कह दिया, हो कह दिया| अब उसे पत्थर की लकीर समजो|"

"नहीं पंडितजी, ऐसा मत कहिये| यदि मेरी घरवाली को कुछ हो गया तो मैं जीते-जी मर जाऊंगा| मेरी हालत पर तरस खाइये| मेहरबानी करके ऐसा मत कीजिये| मैं बड़ा गरीब आदमी हूं|" दादू ने गिड़गिड़ाकर हाथ जोड़ते हुए कहा|

वहां चबूतरे पर मौजूद अन्य लोगों ने भी दादू की सिफारिश की, लेकिन पंडितजी जरा-सा भी टस से मस न हुए| गुस्से में भ्ररकर बोले - "मेरी मिन्नत करने की कोई आवश्यकता नहीं है| जा, चला जा अपने साईं बाबा के पास| उन्हीं से ले आ चुटकी-भर धूनी की राख| उसे अपनी अंधी माँ की आँखों में डाल दे, दिखाई देने लगेगा| उसे मल देना अपनी अपाहिज बहन के हाथ-पैरों पर, वह दौड़ने लगेगी| अपनी घरवाली को भी लगा देना, रोग छूमंतर हो जाएगा| जा भाग यहां से| खबरदार! जो फिर कभी मेरे चबूतरे पर पांव भी रखा तो| हाथ-पैर तोड़कर रख दूंगा|" जिस बुरी तरह से पंडितजी ने दादू को लताड़ा था, उससे उसकी आँखों में आँसूं भर आए| वह फूट-फूटकर रोने लगा| पर, पंडितजी पर इसका जरा-सा भी प्रभाव न पड़ा|

हारकर दादू दु:खी मन से अपने घर लौट गया|

आत्मज्ञानी दादाश्री के त्रिमंदिर में साईं बाबा


ये हैं आत्मज्ञानी दादाश्री और उनके शिष्य पूज्य नीरुमा और पूज्य दीपकभाई - इनकी संस्था पूरे विश्व में 24 त्रिमंदिर बनवा रही है त्रिमंदिर धर्म के क्षेत्र में परम पूज्य दादाश्री का एक अत्यंत क्रांतिकारी कदम है। त्रिमंदिर में सभी मुख्य धर्मों को एक साथ रखा गया है। अभी तक नौ मंदिर बन चुके हैं और इन मंदिरों में साईं बाबा की मूर्ती भी स्थापित की गई है .. इसका सीधा सा अर्थ है कि आत्मज्ञानी दादाश्री भी साईं बाबा को मानते थे .. 

साईं बाबा के बारे में उनके विचार यहाँ देखे जा सकते हैं : http://www.trimandir.org/shri-saibaba.html

भगवान विष्णु के कुछ ऐसे अवतार जो सर्वविदित नहीं है


गीता में भगवान विष्णु के अवतार श्रीकृष्ण ने कहा है कि वह हमेशा अपना धर्म निभाने के लिए अलग-अलग अवतार लेते हैं। भगवान विष्णु के दशावतारों के बारे में तो सभी जानते हैं लेकिन भगवान इसके अलावा भी कई रूपों में अवतरित हुए हैं। 

सनकदि:

माना जाता है कि सृष्टि के आरंभ में ब्रह्मा ने अनेक लोकों की रचना करने की इच्छा से घोर तपस्या की। उनके तप से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने तप अर्थ वाले सन नाम से युक्त होकर सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार नाम के चार मुनियों के रूप में अवतार लिया। ये भगवान विष्णु के सर्वप्रथम अवतार माने जाते हैं।

नर-नारायण:

विष्णु ने भगवान ब्रह्मा के पुत्र धर्म के घर इस रूप में जन्म लिया। इस अवतार में वे अपने मस्तक पर जटा धारण किए हुए थे। उनके हाथों में हंस, चरणों में चक्र एवं छाती पर श्रीवत्स के चिन्ह थे। उनका संपूर्ण वेष तपस्वियों के समान था। महाभारत में कृष्ण और अर्जुन को नर-नारायण का अवतार बताया गया है।

नारद मुनि:

धर्म ग्रंथों के अनुसार देवर्षि नारद भी विष्णु का ही अवतार हैं। शास्त्रों के अनुसार नारद मुनि, ब्रह्मा के सात मानस पुत्रों में से एक हैं। उन्होंने कठिन तपस्या से देवर्षि पद प्राप्त किया है। वे भगवान विष्णु के अनन्य भक्तों में से एक माने जाते हैं। शास्त्रों में देवर्षि नारद को भगवान का मन भी कहा गया है। गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने इनकी महत्ता को स्वीकार करते हुए कहा है कि देवर्षियों में मैं नारद हूं।

कपिल:

विष्णु ने कपिल मुनि के रूप में भी अवतार लिया। इनके पिता का नाम महर्षि कश्यप व माता का नाम देवहूति था। कपिल मुनि के क्रोध से ही राजा सगर के साठ हजार पुत्र भस्म हो गए थे। भगवान कपिल सांख्य दर्शन के प्रवर्तक हैं। कपिल मुनि भागवत धर्म के प्रमुख बारह आचार्यों में से एक हैं। वे सांख्य दर्शन के प्रवर्तक हैं।

दत्तात्रेय:

एक बार त्रिदेव ब्रहा, विष्णु और महेश ने ऋषि अत्रि की पत्नी अनुसूइया के पतिव्रत धर्म से प्रसन्न होकर उन्हें वरदान दिया कि वे अपने अंश से उनके गर्भ से पुत्ररूप में जन्म लेंगे। तब ब्रह्मा के अंश से चंद्रमा, शंकर के अंश से दुर्वासा और विष्णु के अंश से दत्तात्रेय का जन्म हुआ।

पृथु:

भगवान विष्णु के एक अवतार पृथु भी हैं। मनु के वंश में वेन नाम के राजा ने भगवान को मानने से इंकार कर दिया और स्वयं की पूजा करने के लिए कहा। तब महर्षियों ने उसका वध कर दिया। वंश आगे बढ़ाने के लिए राजा की भुजाओं के मंथन से पृथु नाम पुत्र उत्पन्न हुआ। पृथु के दाहिने हाथ में चक्र और चरणों में कमल का चिह्न देखकर ऋषि समझ गए यह भदवान श्रीहरि का अंश है।

धन्वन्तरि:

समुद्र मंथन के दौरान सबसे अंत में भगवान धन्वन्तरि अमृत कलश लेकर प्रकट हुए थे। उनहें भी भगवान विष्णु का अवतार माना जाता है। इन्हें औषधियों का स्वामी भी माना गया है।

मोहिनी:

अमृत को लेकर असुरों व देवताओं में मार-काट मच गई थी। तब भगवान विष्णु ने मोहिनी अवतार लेकर सबको मोहित कर दिया किया। मोहिनी ने कहा कि वह बारी-बारी से देवताओं और असुरों दोनों को अमृत पिला देंगी। वास्तविकता में मोहिनी ने सिर्फ देवताओं को ही अमृत पिलाया जबकि असुर समझते रहे कि वे भी अमृत पी रहे हैं। इस प्रकार भगवान ने मोहिनी अवतार लेकर देवताओं का भला किया।

गजेन्द्रोधारावतर:

कहा जाता है कि तालाब में रहने वाले एक मगरमच्छ ने पानी पीने आए एक हाथी का पैर पकड़ लिया और पानी के अंदर खींचने लगा। गजेंद्र और मगरमच्छ का संघर्ष एक हजार साल तक चलता रहा। अंत में गजेंद्र ने भगवान का ध्यान किया। उसकी स्तुति सुनकर भगवान प्रकट हुए और उन्होंने अपने चक्र से मगरमच्छ का वध कर दिया।

वेदव्यास:

पुराणों में महर्षि वेदव्यास को भी भगवान विष्णु का ही अंश माना गया है। भगवान व्यास नारायण के कलावतार थे। इन्होंने ही मनुष्यों की आयु और शक्ति को देखते हुए वेदों के विभाग किए इसलिए इन्हें वेदव्यास भी कहा जाता है। इन्होंने ही महाभारत ग्रंथ की रचना भी की।

हयग्रीव:

धर्म ग्रंथों के अनुसार एक बार मधु और कैटभ नाम के दो शक्तिशाली वेदों को चोरी कर पाताल में पहुंच गए। तब भगवान ने हयग्रीव अवतार लिया। इस अवतार में भगवान विष्णु की गर्दन और मुख घोड़े के जैसी थी। भगवान हयग्रीव ने मधु-कैटभ का वध कर वेद भगवान ब्रह्मा को लौटा दिए।

हंसावतार:

एक बार भगवान ब्रह्मा अपनी सभा की सभा में उनके मानस पुत्र सनकादि पहुंचे और भगवान ब्रह्मा से मनुष्यों के मोक्ष के संबंध में चर्चा करने लगे। तभी वहां भगवान विष्णु हंस के रूप में प्रकट हुए और उन्होंने सनकादि मुनियों के संदेह का निवारण किया।

Shirdi Sai Baba idol is purported to have opened its left eye


Hundreds of people descended on a merchant’s house in Bangalore on Friday 19 Jul 2008 to witness what they believe is a miracle – the Shirdi Sai Baba idol is purported to have opened its left eye.

The frenzy was such that police had to be called in to control the surging crowds.

After reports of Ganapati idols drinking milk and the recent story of a bleeding Christ, the Sai Baba ‘miracle’ too saw both the devout and the curious rushing to the house.

Door No. 7, Chitra Block, Gavipuram Guttahalli, which, till the other day, was a non-descript residence of phenol merchant Babu, suddenly turned into a pilgrimage centre.

With devotees queuing up to have a glimpse of the statue, the area wore a festive look with small-time traders trying to make a fast buck by selling prasadam and Baba’s idols!

The devotee couple Babu (45) and his wife Lakshmi took the marble idol to clean on Wednesday evening to prepare for the Thursday puja.

The idol had some black mark on its left chin and the couple’s son Dhrupad, who was cleaning the eye, suddenly felt some change in the idol – the eyelash seemed moving. The devotees were astounded and stopped the cleaning work.

On Thursday morning, they found the left eye of Baba had opened. Thursday being a day to worship Baba, the couple, along with their neighbours, performed puja.

The news flashed on Friday morning and by afternoon, the crowds multiplied.

“We had gone to Shirdi a year ago from where we bought this marble idol. It is a miracle that Baba opened his eye on Guru Poornima Day to give us darshan. It has been very difficult to control the crowd as people are queuing up to see the miracle. So we had to inform the police and arrange for bandobast,” said Drupad, a II PU student.

There was also a huge flow of cash as the devotees put “dakshine” (cash offering to God) after the darshan. “I am a staunch Sai Baba devotee and never had witnessed such a miracle. The idol looked like as if Baba was looking at me…I cannot forget this day,” said Swamy Narayan, a resident of Hanumanthanagar, with tears in his eyes.

Policemen from two stations – Kempe Gowdanagar and Hanumanthanagar – were deployed near the house along with Hoysala patrolling teams from Bangalore South. “More than 1,500 people had gathered and the crowd was maddening. Our concern was maintaining peace”, he said. ‪

सत्य साईं बाबा शिर्डी साईं बाबा का अभिषेक करते हुए


पुत्तापर्थी वाले सत्य साईं बाबा शिर्डी साईं बाबा का अभिषेक करते हुए .. यह एक दुर्लभ चित्र है, ज्यादा से ज्यादा शेयर करे ... 

साईं विरोधी भी श्री साई सच्चरित्र पढने को मजबूर


वैसे एक बात तो है जब साईं बाबा शिर्डी में थे तब भी उनके बहुत विरोधी थे बहुत से लोगो ने उनका विरोध किया परन्तु उन्हें और उनके भक्तों को कोई फर्क नही पड़ा वरन उनके भक्तों की संख्या में करोड़ो की वृद्धि हुई वही हाल आज भी है आज भी कुछ तथाकथित कट्टर हिन्दू साईं बाबा का विरोध कर रहे है परन्तु साईं भक्तों की भक्ति में किंचित मात्र भी कमी नही आई बल्कि साईं ने उनके विरोधियों को ही दिन में 100-200 बार साईं नाम लेने और श्री साई सच्चरित्र पढने पर मजबूर कर दिया...

ॐ साईं राम

श्री साईं वचनामृत


साईं बाबा का वर्षा और अग्नि पर नियंत्रण करना


तीन उपनिषद जिसमें बाबा के दत्तावतार तथा दत्तावधूत होनें का उल्लेख


ये हैं वे 3 तीन उपनिषद जिसमें बाबा के दत्तावतार तथा दत्तावधूत होनें का उल्लेख है : 

1. दत्तोपनिषद , 
2. अवधूतोपनिषद और 
3. शाँडिल्योपनिषद ।

अब इसमें से दत्तोपनिषद और अवधूतोपनिषद की रचना स्वयं भगवान दत्तात्रेय जी ने की थी तथा शाँडिल्योपनिषद की रचना महर्षि शाँडिल्य जी ने की थी । ‪#‎exposeantisai‬

भक्त बढ़ रहे हैं साईं बाबा के


साईंबाबा के मुरीदों की संख्या बढ़ती जा रही है। आज जरीपटका, अयोध्या नगर और साईंनगर झिंगाबाई टाकली में भी साईं मंदिर हैं पर सर्वोपरि वर्धा रोड स्थित साईं मंदिर ही है। शहर के हर भाग से यहां लोग पहुंचते हैं। गुरुवार के दिन भक्तों की भीड़ देचते ही बनती है। दोपहर में देर तक चलती आरती के दरम्यान सामने खड़े नर—नारियों और बच्चों की सामूहिक प्रार्थना को सुन बाबा मंद—मंद मुस्कुराते बैठे सबको देखते नजर आते हैं। सामान्यत: साईंबाबा को दत्त़ात्रेय का अवतार माना जाता है पर यह भी एक सच्चाई है कि बाबा स्वयं दत्तात्रेय के उपासक नहीं बल्कि राम के उपासक थे। 

कई मौकों पर वे अपने भक्तों को हनुमान जी पूजा करने तथा कभी शंकर की उपासना करने की सलाह भी देते थे। शिरडी के उनके शुरुआती काल में जब लोगों ने उन्हें तेल तक देने से मना कर दिया तो बाबा ने 'द्वारका माई'में पानी के दीपक जगमगा कर चकित कर दिया। लोग उनके पास अपनी शारीरिक व्याधियां दूर कराने जाने लगे। कोई भूत—बाधा दूर कराने, कोई पुत्र प्राप्ति के लिए तो कोई धन—धान्य से समृद्ध होने उनके पास आने लगे। कहा जाता है कि बाबा योग विद्या भी जानते थे। एक बार शिरडी के आसपास प्लेग फैला तो बाबा ने स्वयं पत्थ्र की चकिया पीसकर आटा निकाला और लोगों से उसे गांव की सीमारेखा पर डालने के लिए कहा ताकि प्लेग बस्ती के अंदर न घुसे और ऐसा हुआ भी।

शिरडी में आज भी वह आटा—चक्की रखी है। नागपुर के साईबाबा मंदिर में भी सन् 2002 में जब नवनिर्माण् हुआ तो वहां प्रतीक के तौर पर एक चकिया धूनी स्थल के पास रख दी गई है। भगवान दत्त, गणेश, दुर्गा माता के अलावा यहां एक शिवलिंग भी स्थापित है। बाबा के टीक सामने दरवाजे पर एक नंदी भी बिठाया गया है। अनेक भक्त इस नंदी के कान में अपनी मनोकामना बताते हुए देखे जाते हैं। उनकी मान्यता है कि नंदी हमारी कामना को बाबा से कहकर पूरी कराएगा क्योंकि दत्तात्रेय भगवान में शंकर का रूप भी था और शंकर के वाहक नंदी हैं।