ओशो के शिर्डी साईं बाबा के बारे में विचार

इसी पिछली सदी के एक अत्यंत सुंदर व्यक्ति थे शिरडी के साईंबाबा। साईंबाबा मुसलमान थे या हिन्दू कोई निश्‍चित तौर पर नहीं जानता कि वे मुसलमान थे या हिंदू। लेकिन क्योंकि वे एक मसजिद में रहते थे, और वहीँ हरिकीर्तन भी करते थे, उनका एक मित्र और अनुयायी था, हिंदू अनुयायी, जो उन्हें प्रेम करता था, उनका आदर करता; जिसकी साईंबाबा में बहुत आस्था थी। हर रोज वह साईंबाबा के पास आ जाता, उनके दर्शन पाने को, और उनका दर्शन किये बिना वह जाता नहीं था। कई बार ऐसा होता कि उसे सारे दिन प्रतीक्षा करनी पड़ती, लेकिन वह उनका दर्शन किये बिना नहीं जाता। वह खाना नहीं खाता, जब तक साईंबाबा के दर्शन न कर लेता।

एक दिन ऐसा हुआ कि सारा दिन बीत गया, और वहां बहुत—से लोग इकट्ठे हुए थे, एक बड़ी भीड़, इतनी बडी कि वह प्रवेश नहीं कर सका। जब हर कोई चला गया, तो रात को उसने साईंबाबा के चरण—एकर्श किये।

साईंबाबा ने उससे कहा, ‘क्यों तुम नाहक प्रतीक्षा करते हो? यहां आकर मेरे दर्शन करने की कोई आवश्यकता नहीं है, मैं तुम्हारे पास आ सकता हूं। इसे कल से छोड़ दो। अब मैं आ जाऊंगा तुम्हारे पास। इससे पहले कि तुम अपना भोजन लो, तुम मेरा दर्शन पाओगे।’

वह शिष्य बहुत प्रसन्न था। अगले दिन वह प्रतीक्षा ही प्रतीक्षा करता रहा, लेकिन कुछ घटित नहीं हुआ। वस्तुत: बहुत कुछ घटित हुआ, लेकिन उसकी परिकल्पना के अनुसार कुछ घटित नहीं हुआ। शाम तक वह बहुत नाराज हो गया। उसने अभी तक भोजन नहीं लिया था, और क्योंकि साईंबाबा अब भी प्रकट नहीं हुए थे, वह फिर उनके दर्शन के लिए चला गया। वह बोला, ‘ आप वचन देते हैं और उसे पूरा नहीं करते?’

साईंबाबा बोले, ‘सिर्फ एक बार ही नहीं, तीन बार प्रकट हुआ। जब पहली बार मैं आया, मैं एक भिखारी था। तुमने मुझसे कहा, ‘दूर हटो। यहां मत आओ।’ दूसरी बार जब मैं तुम्हारे पास आया, एक बूढ़ी सी के स्‍वप्‍न में., और तुमने मेरी ओर देखा तक नहीं। तुमने अपनी आंखें बंद कर लीं।’ स्रियों की ओर न देखना उस शिष्य की आदत थी। वह स्रियों को न देखने का अभ्यास कर रहा था, इसलिए उसने अपनी आंखें बंद कर ली थीं। साईंबाबा बोले, ‘मैं आया था। लेकिन तुम क्या आशा रखते हो? मैं तुम्हारी आंखों में प्रवेश कर जाऊं—बंद आंखों में? मैं बिलकुल वहीं खड़ा हुआ था, लेकिन तुमने अपनी आंखें बंद कर लीं। फिर तीसरी बार तुम्हारे पास कुत्ते के स्‍वप्‍न में आया, लेकिन तुमने मुझे अंदर नहीं आने दिया। तुम एक डंडा लेकर दरवाजे पर खड़े हो गये।’

और ये तीनों बातें वस्तुत: घटित हुई थीं। ऐसी बातें सारी मानवता के साथ घटित होती रही हैं। भगवत्ता बहुत स्‍वप्‍न में आती है, लेकिन तुममें पूर्वधारणाए होती हैं; तुममें पूर्वगठित परिकल्पना होती है, तुम देख नहीं सकते। परमात्मा को तुम्हारे अनुसार प्रकट होना चाहिए। और वह कभी तुम्हारे अनुसार प्रकट नहीं होता है। वह कभी तुम्हारे अनुसार प्रकट होगा भी नहीं। तुम उसके लिएनियम नहीं हो सकते और तुम कोई शर्तें नहीं बना सकते। जब सारी कल्पनाएं गिर जाती हैं, केवल तभी सत्य प्रकट होता है। वरना कल्पनाशक्ति शर्तें बनाती जाती है और सत्य प्रकट नहीं हो सकता। केवल नग्‍न मन में, शून्य में, खाली मन में ही सत्य प्रकट होता है क्योंकि तब तुम उसे विकृत नहीं कर सकते।

मन की वह वृत्ति जो अपने में किसी विषय—वस्तु की अनुपस्थिति पर आधारित होती है निद्रा है।

पतंजलि: योग-सूत्र–(भाग-1) प्रवचन–5
योग—विज्ञान की शुचिता—प्रवचन—पांचवां

2 comments:

  1. मुझे विश्वास नही होता की ओशो जी साईं के पक्षधर है , अगर है तो उनका कोई वीडियो सेंड करे मेरी आई डी में या फेसबुक की लिंक में , ये रही लिंक , https://www.facebook.com/pandit.sachit क्योकि साईं को ओशो जी कभो ऐसे व्यक्त नही कर सकते जिसमे जिसमे उन्हें भगवान् से तुलना किया गया हो ....

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  2. यह रहा सन्दर्भ :

    पतंजलि: योग-सूत्र–(भाग-1) प्रवचन–5
    योग—विज्ञान की शुचिता—प्रवचन—पांचवां

    अब स्वयं खोज लें ,,,,

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