साईं बाबा जब दामोदर तथा कुछ अन्य शिष्यों को साथ लेकर तात्या के घर पहुंचे, तो तात्या बेहोशी में न जाने क्या-क्या बड़बड़ा रहा था| उसकी माँ वाइजाबाई उसके सिरहाने बैठी उसका माथा सहला रही थी| तात्या बहुत कमजोर दिखाई पड़ रहा था|
साईं बाबा को देखते ही वाइजाबाई उठकर खड़ी हो गई| उसकी आँखें शायद रातभर सो पाने के कारण सूजी हुई थीं और चेहरा उतरा हुआ था| उसे बेटे की बहुत चिंता सता रही थी| बुखार ने तात्या के शरीर को एकदम से तोड़ के रख दिया था|
"साईं बाबा!" वाइजाबाई कहते-कहते रो पड़ी|
"क्या बात है मां, तुम रो क्यों रही हो?" साईं बाबा तात्या के पास जाकर बैठ गये|
वाइजाबाई बोली-"जब से आपके पास से आया है, बुखार में भट्टी की तरह तप रहा है और बेहोशी में न जाने क्या-क्या उल्टा सीधा बड़बड़ा रहा है|"
"देखूं, जरा कैसे, क्या हो गया है इसे?" दुपट्टे के छोर में बंधी भभूति निकाली और तात्या के माथे पर मलने लगे|
वाइजाबाई, दामोदर और साईं बाबा के अन्य शिष्य इस बात को बड़े ध्यान से देख रहे थे|
तात्या के होंठ धीरे-धीरे खुल रहे थे| वह कुछ बड़बड़ा-सा रहा था| उसका स्वर इतना धीमा और अस्पष्ट था कि किसी की समझ में कुछ भी नहीं आ रहा था|
"साईं बाबा!" अचानक तात्या के होठों से निकला और उसने आँखें खोल दीं|
"क्या हुआ तात्या! मैं तो कब से तुम्हारा इंतजार कर रहा था? जब तुम नहीं आये तो मैं स्वयं तुम्हारे पास चला आया|" साईं बाबा ने स्नेहभरे स्वर में कहा| उनके होठों पर हल्की-सी मुस्कान तैर रही थी और आँखों में अजीब-सी चमक|
"बाबा ! मुझे न जाने क्या हो गया है? आपके पास से आया और खाना खाकर सो गया| ऐसा सोया कि अब आँखें खुलीं हैं|" तात्या ने कहा|
"कल से तू बुरी तरह से बुखार में तप रहा है|" वाइजाबाई अपने बेटे की ओर देखते हुई बोली - "मैंने सारी रात तेरे सिरहाने बैठकर काटी है|"
"बुखार...! मुझे बुखार कहां है| मेरा बदन तो बर्फ जैसा ठंडा है|" इतना कहते हुए तात्या ने अपना दायां हाथ आगे बढ़ा दिया और फिर दूसरा हाथ दामोदर कि ओर बढ़ाते हुए बोला -"लो भाई, जरा तुम भी देखो, मुझे बुखार है क्या?"
वाइजाबाई और दामोदर ने तात्या का हाथ देखा| अब उसे जरा-सा भी बुखार नहीं था| वाइजा ने जल्दी ने तात्या के माथे पर हथेली रखी| थोड़ी देर पहले उसका माथा गरम तवे की तरह जल रहा था, पर अब तो बर्फ कि भांति ठंडा था| वाइजा और दामोदर हैरत के साथ साईं बाबा की ओर देखने लगे|
साईं बाबा मंद-मंद मुस्करा रहे थे|
वाइजाबाई यह चमत्कार देखकर हैरान रह गयी थी|
तभी साईं बाबा अचानक बोले -"मां, मुझे बहुत भूख लगी है, रोटी नहीं खिलाओगी?"
वाइजाबाई ने तुरंत हड़बड़ाकर कहा -"क्यों नहीं, अभी लायी|" और फिर वह तेजी से अंदर चली गयी|
थोड़ी देर में जब वह अंदर से आयी, तो उसके हाथ में थाली थी, जिसमें कुछ रोटियां और दाल से भरा कटोरा था|
साईं बाबा ने अपने दुपट्टे के कोने में रोटियां बांध लीं और तात्या की ओर देखते हुए बोले-"चलो तात्या, आज तुम भी मेरे साथ ही भोजन करना|"
तात्या एकदम बिस्तर से उठकर खड़ा हो गया| उसे देखकर इस बात का विश्वास नहीं हो रहा था कि कुछ देर पहले वह बहुत तेज बुखार से तप रहा था| और न ही उसमें अब कमजोरी थी|
"ठहरो बाबा, मैं और रोटियां ले लाऊं|" वाइजाबाई ने कहा|
"नहीं माँ, बहुत हैं| हम सबका पेट भर जायेगा|" साईं बाबा ने कहा| फिर वह अपने शिष्यों को साथ लेकर द्वारिकामाई मस्जिद की ओर चल दिये|
उनके जाने के बाद वाइजाबाई सोच में पड़ गयी| उसने कुल चार रोटियां ही दी हैं| इनसे सबका पेट कैसे भर जायेगा? अतएव उसने जल्दी-जल्दी से और रोटियां बनाईं, फिर उन्हें लेकर मस्जिद की ओर चल दी|
जब वह रोटियां लेकर द्वारिकामाई मस्जिद पहुंची तो साईं बाबा सभी लोगों के साथ बैठे खाना का रहे थे| पांचों कुत्ते भी उनके पास ही बैठे थे| वाइजाबाई ने रोटियों की टोकरी साईं बाबा के सामने रख दी|
"माँ, तुमने बेकार में ही इतनी तकलीफ की| मेरा पेट तो भर गया है| इन लोगों से पूछ लो| जरूरत हो तो दे दो|" साईं बाबा ने रोटी का आखिरी टुकड़ा खाकर लम्बी डकार लेते हुए कहा|
वाइजाबाई ने बारी-बारी से सबसे पूछा| सबने यही कहा कि उनका पेट भर चूका है| उन्हें और रोटी की जरूरत नहीं| वाइजाबाई ने रोटी के कुछ टुकड़े कुत्तों के सामने डाले, लेकिन कुत्तों ने उन टुकड़ों की ओर देखा तक नहीं| अब
वाइजाबाई के हैरानी की सीमा न रही| उसने साईं बाबा को कुल चार रोटियां दी थीं| उन चार रोटियों से भला इतने आदमियों और कुत्तों का पेट कैसे भर गया?
उसकी समझ में कुछ भी न आया|
उसे साईं बाबा के चमत्कार के बारे में पता न था| एक प्रकार से यह उनका एक और चमत्कार था, जो वह प्रत्यक्ष देख और अनुभव कर रही थी|
शाम तक तात्या के बुखार उतरने की बात गांव से एक छोर से दूसरे छोर तक फैल गई|
"धूनी की भभूति माथे से लगाते ही तात्या का बुखार से आग जैसा जलता शरीर बर्फ जैसा ठंडा पड़ गया|" एक व्यक्ति ने पंडितजी को बताया|
"अरे जा-जा, ऐसे कैसे हो सकता है? बर्फ जैसा ठंडा पड़ गया बुखार से तपता शरीर| सुबह दामोदर खुद तात्या को देखकर आया था| उसका शरीर भट्टी की तरह दहक रहा था| वह तो पिछली रात से ही बुखार के मारे बेहोश पड़ा था|
बेहोशी में न जाने क्या-क्या उल्टा-सीधा बड़बड़ा रहा था| इतना तेज बुखार और सन्निपात, चुटकीभर धूनी की राख से छूमंतर हो जाये, तो फिर दुनिया ही न बदल जाये|" पंडितजी ने अविश्वासभरे स्वर में कहा|
"यह बात एकदम सच है पंडितजी !" उस व्यक्ति ने कहा -" और इससे भी ज्यादा हैरानी की बात यह है पंडितजी !"
"वह क्या?" पंडितजी का दिल किसी अनिष्ट की आंशका से जोर-जोर से धड़कने लगा|
"साईं बाबा ने तात्या के घर जाकर वाइजाबाई से खाने के लिए रोटियां मांगीं| उसने कुल चार रोटियां दी थीं| उस समय साईं बाबा के साथ दामोदर और कई अन्य शिष्य भी थे| वाइजाबाई ने सोचा कि चार रोटियों से इतने आदमियों का पेट कैसे भरेगा? फिर साईं बाबा के साथ उनके कुत्ते भी तो खाना खाते हैं|
वाइजाबाई ने और रोटियां बनाईं और लेकर मस्जिद गई| सबने यही कहा कि उनका पेट भर चुका है| वाइजाबाई ने एक रोटी तोड़कर कुत्तों के आगे डाली, लेकिन कुत्तों ने रोटी को सूंघा भी नहीं| अब आप ही बताइए, सब लोगों के हिस्से मैं मुश्किल से चौथाई रोटी आयी होगी| एक-एक आदमी चार-छ: रोटियों से कम तो खाता नहीं है| फिर उसका एक टुकड़े में ही कैसे पेट भर गया, चमत्कार है न !" उस व्यक्ति ने शुरू से अंत तक सारी कहानी ज्यों कि त्यों पंडितजी को सुना दी|
उसकी बात सुन पंडितजी बुरी तरह से झल्लाकर बोले-"बेकार की बकवास मत करो| यह सब झूठा प्रचार है| तुम्हारा नाम दादू है ना| जैसा तुम्हारा नाम है वैसी ही तुम्हारी अक्ल भी है| मैं इनमें से किसी भी बात पर विश्वास करने के लिए तैयार नहीं| यह उन सब छोकरों की मनगढ़ंत कहानी है, जो रात-दिन गांजे के लालच में उसके साथ चिपटे रहते हैं| साईं बाबा खुद भी गांजे के दम लगाता है तथा गांव के सब छोकरों को अपने जैसा गंजेड़ी बनाकर रख देगा|"
पंडितजी की बात सुनकर दादू को बहुत तेज गुस्सा आया, लेकिन कुछ सोचकर वह चुप रह गया| उसकी पत्नी पिछले कई महीनों से बीमार थी| उसका इलाज पंडितजी कर रहे थे, पर कोई लाभ न हो रहा था| पंडितजी दवा के नाम पर उससे बराबर पैसा ऐंठ रहे थे|
पंडितजी साईं बाबा के प्रति पहले से ही ईर्ष्या व द्वेष की भावना रखते थे| दादू की बातें सुनकर उनकी ईर्ष्या और द्वेष की भावना और ज्यादा भड़क उठी| साईं बाबा पर गुस्सा उतारना तो संभव न था, दादू पर ही अपना गुस्सा उतारने लगे| उन्होंने गुस्से में जल-भुनकर दादू की ओर देखते हुए कहा - "यदि इतना ही विश्वास है कि धूनी की राख लगते ही तात्या का बुखार छूमंतर हो गया तो तू अपनी घरवाली को क्यों नहीं ले जाता उसके पास? आज से वो ही तेरी घरवाली का इलाज करेगा| मैं आज से तेरी पत्नी का इलाज बंद करता हूं, जा, अपने ढोंगी साईं बाबा के पास और धूनी की सारी राख लाकर मल दे अपनी घरवाली के सारे शरीर पर| बीवी में मुट्ठीभर हडि्डयां बची हैं| धूनी की राख मलते ही बीमारी पल में छूमंतर हो जायेगी| जा भाग जा यहां से|"
"ऐसा मत कहो, पंडितजी! मैं गरीब आदमी हूं|" दादू ने हाथ जोड़ते हुए पंडितजी से कहा| पर, पंडितजी का गुस्सा तो इस समय सातवें आसमान पर पहुंचा हुआ था|
दादू ने बड़ी नम्रता से कहा - "पंडितजी ! मैं साईं बाबा की प्रशंसा कहां कर रहा था| मैंने तो केवल सुनी हुई बात आपको बतलायी है|"
"चुप कर, आज से तेरी घरवाली का इलाज वही करेगा|" पंडितजी ने क्रोध से दांत भींचते हुए दृढ़ स्वर में कहा|
दादू पंडितजी का गुस्सा देखर हैरान था| साईं बाबा के नाम पर इतनी जिद्द| पंडितजी पर दादू की प्रार्थना का कोई प्रभाव न पड़ा, बल्कि दादू पर पंडितजी का गुस्सा बढ़ता ही चला जा रहा था|
दादू का हाथ पकड़कर, एक ओर को झटका देते हुए कहा - "मैं जात का ब्राह्मण एक बार जो कुछ कह देता है, वह अटल होता है मैंने जो कह दिया, हो कह दिया| अब उसे पत्थर की लकीर समजो|"
"नहीं पंडितजी, ऐसा मत कहिये| यदि मेरी घरवाली को कुछ हो गया तो मैं जीते-जी मर जाऊंगा| मेरी हालत पर तरस खाइये| मेहरबानी करके ऐसा मत कीजिये| मैं बड़ा गरीब आदमी हूं|" दादू ने गिड़गिड़ाकर हाथ जोड़ते हुए कहा|
वहां चबूतरे पर मौजूद अन्य लोगों ने भी दादू की सिफारिश की, लेकिन पंडितजी जरा-सा भी टस से मस न हुए| गुस्से में भ्ररकर बोले - "मेरी मिन्नत करने की कोई आवश्यकता नहीं है| जा, चला जा अपने साईं बाबा के पास| उन्हीं से ले आ चुटकी-भर धूनी की राख| उसे अपनी अंधी माँ की आँखों में डाल दे, दिखाई देने लगेगा| उसे मल देना अपनी अपाहिज बहन के हाथ-पैरों पर, वह दौड़ने लगेगी| अपनी घरवाली को भी लगा देना, रोग छूमंतर हो जाएगा| जा भाग यहां से| खबरदार! जो फिर कभी मेरे चबूतरे पर पांव भी रखा तो| हाथ-पैर तोड़कर रख दूंगा|" जिस बुरी तरह से पंडितजी ने दादू को लताड़ा था, उससे उसकी आँखों में आँसूं भर आए| वह फूट-फूटकर रोने लगा| पर, पंडितजी पर इसका जरा-सा भी प्रभाव न पड़ा|
हारकर दादू दु:खी मन से अपने घर लौट गया|