भारत के मूल निवासी और आज के अधिकांश निवासी सनातन धर्म को अपनाते हैं। सनातन धर्म यह स्वीकार करता है कि यदि कोई व्यक्ति किसी भी इष्ट में आस्था नहीं रखता एवं नास्तिक है, तो भी यदि उसका आचरण और कर्म सही हैं तो वह धार्मिक होगा। हर धार्मिक व्यक्ति को मोक्ष का अधिकार है व मोक्ष आस्था से नहीं, कर्म से मिलता है। जो अपने आपको हिंदू कहते हैं, वे भी इस सनातन परंपरा के अंग हैं, हालांकि प्रचलन में अब हम सनातन धर्म एवं हिंदू धर्म में अंतर नहीं देखते।
हिंदू धर्म में पूरी छूट है कि हर व्यक्ति मोक्ष का अपना-अपना रास्ता खोजे। वह रास्ता आस्था का भी हो सकता है या नास्तिकता का भी। हिंदुओं को पूरी छूट है कि वे 33 करोड़ देवी-देवताओं में से जिस पर भी आस्था रखना चाहें, रखें। इस धर्म में जब बुराइयां आईं, तब गौतम बुद्ध का अवतरण हुआ एवं बौद्ध धर्म का सृजन हुआ। परंतु आदि शंकराचार्य द्वारा धर्म को पुन: परिशोधित करने के बाद से भारत से बौद्ध धर्म विलुप्तप्राय हो गया।
आदि शंकराचार्य सुधारक थे। उन्होंने अपने चार मठ - पुरी, श्रंगेरी, द्वारिका एवं ज्योतिर्मठ - चार दिशाओं में स्थापित किए, जिससे भारत आध्यात्मिक दृष्टि से एक बने। द्वारिका मठ के शंकराचार्य फिलहाल स्वरूपानंद हैं, जिनकी धार्मिक यात्रा की शुरुआत गोटेगांव से हुई। द्वारिका पीठ के शंकराचार्य होने के नाते वे आदि शंकराचार्य के उत्तराधिकारी हैं और गोटेगांव में श्रीधाम के भी शंकराचार्य हैं। मेरे विचार से इस पदवी का आदि शंकराचार्य के मठों के मठाधीशों के अतिरिक्त किसी को अधिकार नहीं है। वैसे भी स्वरूपानंद ने एक दल विशेष को अपना राजनीतिक आशीर्वाद दिया है, जिस कारण उन्हें पूर्व की सरकार के समय सरकारी शंकराचार्य के नाम से पहचाना जाता था।
महाराष्ट्र में शिर्डी नामक गांव में साईं बाबा के नाम से पहचाने जाने वाले एक फकीर संत हुए थे और उन्होंने सौहार्द, सादगी और ईमानदारी का पैगाम दिया। जब तक साईं बाबा जीवित थे, उन्होंने अपनी जिंदगी पूर्णत: सादगी से बिताई, परंतु उनके पैगाम से धीरे-धीरे अनेक लोग प्रभावित हुए। बाद में श्रद्धालुओं ने शिर्डी में भव्य आश्रम का निर्माण किया। साईं बाबा पर लोगों की बढ़ती हुई आस्था को देखते हुए स्वरूपानंद ने मुहिम छेड़ दी कि साईं बाबा न तो भगवान हैं और न संत, उनकी पैदाइश एक मुस्लिम परिवार में हुई थी और हिंदुओं द्वारा उन पर श्रद्धा रखना एक धर्मविरोधी पाप है।
हिंदू धर्म की जो एक महान उपलब्धि मानी जाती है, वह है सहनशीलता। क्या स्वरूपानंद का साईं बाबा पर यह आक्रमण इस सहनशीलता का द्योतक है? जिस धर्म में विचार, आस्था व उपासना की पूरी छूट हर इंसान को दी गई है, क्या वहां साईं बाबा पर आक्रमण करने का कोई आधार है? हिंदू धर्म अपने खुलेपन की वजह से ही आज विश्व का सबसे पुराना धर्म है, जिसे कोई तोड़ नहीं सका। सनातन धर्म तब तक जीवित रहेगा, जब तक उसमें खुलापन बना रहेगा। मैं उन लोगों को हिंदू नहीं समझता, जो एक खुले धर्म को एक संकीर्ण ढांचे में कैद करने का प्रयास करना चाहते हैं।
गत दिनों एक अखबार में स्वरूपानंद का सिवनी में दिया गया बयान प्रकाशित हुआ था, जिसमें उन्होंने कहा था कि साईं बाबा एक पिंडारी और उसकी रखैल के पुत्र थे और उनका वास्तविक नाम चांद मियां था। उन्होंने कहा कि वे अफगानिस्तान से अहमदनगर आए और वहां उसका बेटा हुआ। एक वेश्या का बेटा और वह भी मुसलमान, ऐसा संत कैसे हो सकता है, जिसकी हिंदू पूजा करें? तथ्य यह है कि गवर्नर जनरल लॉर्ड विलियम बैंटिक ने 19वीं सदी के पहले और दूसरे दशक में पिंडारियों का समूल नाश कर दिया था। इसका मतलब यह है कि एक पिंडारी का पुत्र 20वीं सदी के प्रारंभ में ही लगभग 100 वर्ष का होगा, जबकि साईं बाबा की मृत्यु तो सन् 1918 में 80 वर्ष की आयु में हुई थी।
जब दिग्विजय सिंह मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री थे, तब स्वरूपानंद ने राघौगढ़ में नवदुर्गा प्रसंग का आयोजन किया था। चूंकि वे एक मुख्यमंत्री के मेहमान थे, इस कारण तत्कालीन ग्वालियर संभागायुक्त सर्जीयस मिंज, जो स्वयं ओरांव जनजाति के हैं एवं ईसाई हैं, को भी राघौगढ़ जाना पड़ा था। दिग्विजय सिंह ने स्वरूपानंद का स्वागत साष्टांग दंडवत करके किया, जबकि मिंज ने उन्हें आदर से नमस्कार किया। इसके बाद स्वरूपानंद का प्रवचन हुआ, जिसमें उन्होंने कहा कि ब्राह्मण की विशेषता उसका ज्ञान है, क्षत्रिय की विशेषता उसका शौर्य है, वैश्य की विशेषता उसकी वाणिज्यिक कुशलता है और शूद्र की विशेषता उसकी लंबी आयु है। मिंज को उनकी बात समझ नहीं आई तो उन्होंने अपने निजी सचिव, जो ब्राह्मण थे, से इसका आशय पूछा। उत्तर मिला : आशय यह है कि शूद्र जितने लंबे समय तक जीवित रहेगा, सवर्णों की चाकरी करता रहेगा।
मेरा जन्म शूद्र परिवार में नहीं हुआ। मैं कभी सामाजिक अन्याय का शिकार नहीं बना। मुझे कभी वह नहीं भुगतना पड़ा, जो दलित को भुगतना पड़ता है। मेरा जन्म सौराष्ट्र के एक नागर परिवार में हुआ। यह तो पूरे गुजरात की मान्यता है कि नागरों को ब्राह्मणों के ब्राह्मण कहा जाता है। मेरे पिता आईसीएस अधिकारी थे व इस कारण मुझे हर अच्छी सुविधा प्राप्त थी। लेकिन अगर किसी व्यक्ति का जन्म ऐसे परिवार में हो, जिसे उन सामाजिक सुविधाओं से वंचित रखा गया हो जो मुझे प्राप्त थीं तो क्या उसे प्रगति, सम्मान और न्याय का अधिकार नहीं है? भले ही साईं बाबा एक वेश्या के पुत्र क्यों न हों, क्या वे साधना के माध्यम से एक संत का दर्जा प्राप्त नहीं कर सकते? स्वरूपानंद बतलाएं कि किस धर्मग्रंथ में लिखा है कि यदि हमारे माता-पिता ने कोई अनैतिक काम किया हो तो पुत्र स्वयमेव अनैतिक हो जाता है?
जब सनातन धर्म स्वीकार करता है कि 'वसुधैव कुटुंबकम्", अर्थात हम सब एक कुटुंब के हैं, तो इसमें ऊंच-नीच का क्या प्रश्न है? कबीर भी तो एक जुलाहे थे। वाल्मीकि हरिजन थे, परंतु क्या उनकी रामायण स्वरूपानंद नहीं पढ़ते?
मैं स्वयं नास्तिक नहीं हूं, परंतु मैं ऐसे धर्म को स्वीकार करने को तैयार नहीं हो सकता, जिसमें सबकी समानता न हो, जिसका इष्ट करुणामय न हो और जिसमें धर्म के ठेकेदार अपना वर्चस्व बनाने के लिए दूसरों पर प्रहार करें।
कुरान शरीफ में लिखा है कि 'मेरे लिए मेरा मजहब और तेरे लिए तेरा।" क्या स्वरूपानंद भी यह स्वीकार नहीं कर सकते कि उनके भक्तों की उनमें आस्था और साईं बाबा के भक्तों की उनमें!
लेखक: श्री एम एन बुच (पूर्व प्रशासनिक अधिकारी) #ExposeAntiSai